उत्तराखंड का वो वीर सैनिक जिसे असम में मिला है भगवान का दर्जा


1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान चीनी सैनिक अपने नापाक इरादों के साथ तेजी से भारत की ओर बढ़ रहे थे. उनकी नज़र अरुणाचल प्रदेश को हथियाने पर थी. इसी कड़ी में जब वह अरुणाचल की सीमा के पास पहुंचे तो, लेकिन चीनी सैनिकों के इरादों की राह में एक शख्स फौलाद बनकर खड़ा था,वह थे-गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत. 17 नवंबर 1962 से शुरू हुए चीनी सेना के इस हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अगले 72 घंटों के दौरान जसंवत सिंह ने जिस अदम्य वीरता और शौर्य का परिचय दिया उसकी मिसाल इतिहास में कहीं और मिलना बहुत मुश्किल हैं.

अरुणाचल प्रदेश पर कब्जे के लिए चीनी सेना ने 17 नवंबर 1962 को अरुणाचल प्रदेश पर सबसे जोरदार हमला किया.नौरनंग की इस लड़ाई में चीनी सेना द्वारा प्रयोग की गई मीडियम मशीन गन की जोरदार फायरिंग ने गढ़वाल राइफल्स के जवानों को मुश्किल में डाल दिया था और चीनी सेना को रोकना मुश्किल हो गया था.लेकिन ऐसे में गढ़वाल राइफल्स के तीन जवानों ने ऐसा साहसिक कदम उठाया जिसने युद्ध की दिशा ही बदलकर रख दी.

राइफलमैन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह और राइफलमैन गोपाल सिंह चट्टानों और झाड़ियों में छिपते हुए भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज 15 यार्ड की दूरी से हैंडग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारते हुए MMG छीन ली.त्रिलोक और जसंवत MMG को लेकर जमीन पर रेंगते हुए भारतीय खेमे में सुरक्षित पहुंचने ही वाले थे कि चीनी सेना की गोलियों का निशाना बन गए. लेकिन बुरी तरह घायल गोपाल ने MMG को भारतीय बंकर में पहुंचा दिया. इस घटना के बाद लड़ाई का रुख ही बदल गया और चीनी सेना को मुंह की खानी पड़ी और अरुणाचल प्रदेश को जीतने का उसका ख्वाब अधूरा रह गया.

जसवंत सिंह की वीरता की प्रचलित स्थानीय कहानीः
जसवंत सिंह की वीरता की एक और कहानी है जो अरुणाचल प्रदेश में प्रचलित है. इसके मुताबिक 17 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना ने यहां हमला किया तो गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के ज्यादातर जवान मारे गए लेकिन जसवंत सिंह अकेले ही 10 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित अपनी पोस्ट पर डटे रहे. जसवंत सिंह ने अकेले ही दो स्थानीय मोनपा लड़कियों सेला और नूरा, जोकि मिट्टी के बर्तन बनाती थीं, की मदद से अलग-अलग जगहों पर हथियार रखे और चीनी सेना पर भीषण हमला बोल दिया. इस जोरदार हमले से स्तब्ध चीनी सेना को लगा कि वे भारतीय सेना की टुकड़ी से लड़ रहे हैं न कि एक आदमी से.
माना जाता है कि इस भीषण लड़ाई के दौरान जसवंत सिंह ने 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन जसवंत सिंह को राशन पहुंचाने वाले आदमी के पकड़े जाने के बाद चीनी सेना को पता चला कि उनकी सेना के होश उड़ाने वाला एक अकेला राइफलमैन जसंवत सिंह है. सेला ग्रेनेड हमले में मारी गई जबकि नूरा पकड़ी गई. इसके बाद जब जसवंत सिंह को लगा कि वे पकड़े जाएंगे तो उन्होंने अपने पास बची आखिरी गोली खुद को मार ली. कहा जाता है कि चीनी सेना जसंवत सिंह का सिर काटकर अपने साथ चीन ले गई. लेकिन जसवंत की बहादुरी से प्रभावित एक चीनी कमांडर ने बाद में उसे भारत को लैटा दिया.
जसवंत सिंह की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है. भारतीय सेना उन्हें अब भी सेना के सेवारत अधिकारी की तरह सम्मान देती है. इतना ही नहीं जिस जगह पर वह शहीद हुए थे वहां पर एक उनकी याद में एक झोपड़ी बनाई गई है. इसमें उनके लिए एक बेड लगा हुआ और उस पोस्ट पर तैनात जवान हर रोज बेड की चादर बदलते हैं और बेड के पास पालिश किए हुए जूते रखे जाते हैं. इस बहादुरी के लिए गढ़वाल राइफल्स के जवानों को मरणोपरांत महावीर और वीर चक्र प्रदान किया गया.जसवंत सिह को महावीर चक्र और त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह को वीर चक्र दिया गया.

300 चीनी सैनिकों को अकेले मारकर अरुणाचल प्रदेश की रक्षा करने वाले जसवंत सिंह को उनकी अकल्पनीय वीरता की वजह से ही स्थानीय लोग भगवान का दर्जा देते हैं.


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