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“नशा नहीं रोजगार दो” अपनी कविताओं में आज भी जिन्दा है जनकवि गिर्दा,उत्तराखंड में आंदोलनों के पर्याय बन गए थे गिर्दा, जनगीतों में हक़ हकूक की लड़ाई की देते थे प्रेरणा

HaldwaniNews.com


उत्तराखण्ड के जन-सरोकारों से जुडा, शायद ही कोई मुद्दा हो जो गिर्दा की कलम से अछूता रहा हो, सरकारी व्यवस्था से उपजे गुस्से को तथा उत्तराखंड में हुए जनान्दोलनों को लेकर लिखे गये उनके गीतों में जो दर्द छुपा हुआ है,आह्वान है तथा उज्वल भविष्य की आस है, वो कहीं किसी और कवि की रचना में नजर नही आता। जहाँ भी जनसंघर्ष था गिर्दा उन सभी जगहों पर कवि-गायक-नायक के रूप में अनिवार्य रूप से विद्यमान रहते थे।

भले ही उत्तराखण्ड राज्य को अब 20 साल बीत चुके है।लेकिन अलग राज्य लिये तमाम लोगों ने अपनी शहादत दी। मगर इनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जिसने 1994 के उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान अपने जनगीतों और कविताओं के माध्यम से पहाड़ी जनमानस को उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए बडे प्रभावशाली ढंग से आंदोलित करने का काम किया, वो थे जनकवि गिरीश तिवाडी गिर्दा! जिनकी भरपाई करना मुश्किल ही नही बल्कि नामुकिन है। जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की आज नौवीं पुण्य तिथि है।गिर्दा आज भले ही हमारे बीच नही है, मगर उनकी रचनाएं आज भी हमारे दिलों मे जिन्दा है। लखनऊ की सड़कों पर रिक्शा खींचने के बाद गिर्दा ने आन्दोलन की ऐसी  राह पकड़ी कि वह उत्तराखंण्ड मे आन्दोलनों के पर्याय ही बन गये, उन्होंने जनगीतों से लोगो को अपने हक-हकूको के लिये ना सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी, बल्कि परिवर्तन की एक नयी आस भी जगाई। उत्तराखंड के 1977 में चले वन बचाओ आन्दोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 में हुये उत्तराखंड आन्दोलन में गिर्दा की रचनाओं ने जान फूंकी थी।

गिर्दा ने उस आंदोलन की नींव रख दी थी जिसकी वास्तव में उत्तराखंड को जरूरत भी थी,नशे से कई घरों के चिराग उजड़ जाने से पूरा परिवार ही नही राज्य से लेकर देश तक बरबाद हो जाता है ये बात गिर्दा बखूबी जानते थे,नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन" के दौरान "जन एकता कूच करो, मुक्ति चाहते हो तो आओ संघर्ष में कूद पडो"  गाकर आम जनता से आन्दोलन में भागीदारी का आह्वान कर नशा मुक्त राज्य की परिकल्पना गिर्दा ने की थी।
ऐसा नही था कि गिर्दा सिर्फ अपने राज्य को सोचकर लिखा करते थे बल्कि उनकी रचनाओं में देश का दर्द भी दिखाई देता था। खासकर जब चुनावी त्योहार में रंग बदलते नेताओं की ब्यार सी बह चलती थी तब गिर्दा ने जो लिखा वो सचमुच कमाल का था.

'देश की हालत अट्टा-बट्टा,
रुस अमेरिका का सट्टा,
हम-तुम साला उल्लू पट्ठा,
अपने हिस्से घाटा-वाटा,
और मुनाफा बिडला-टाटा,
लोकतंत्र का देख तमाशा
आओ खेलें कट्टम-कट्टा।
देश में लोकतंत्र बरकरार है,
आपको अपना तानाशाह चुनने का झकमार कर अधिकार है।'

इतना ही नहीं उसके बाद भी  गिर्दा ने हर आन्दोलन मे बढ़ चढ़कर शिरकत की।नैनीताल में जब आठ अक्टूबर सन् 1993 को पुलिस फायरिंग हुई थी तब गिर्दा ने शब्दों के साथ खेलकर जो कह डाला वो दिल के अंदर तक झकझोर देने वाला था।

हालाते सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें।

22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की ये आवाज़ हमेशा के लिये खामोश हो गई।
 जनवादी होने का ही प्रमाण था कि समाज की कुरीतियां कभी उनके ऊपर हावी नहीं हो पायी। उन्होंने रचनाओं से हमेशा राजनिति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया।राज्य आन्दोलन के दौरान लोगो को एक साथ बांधने का काम भी गिर्दा ने किया । उस दौरान उनका उत्तराखंण्ड बुलेटिन काफी चर्चाओं में भी रहा, लेकिन इन सब से अलग खास ये थी कि स्व0 गिर्दा ने जो बात अपनी रचनाओं के माध्यम से 1994 में कही थी, वो सब राज्य बनने के बाद सत्य होता दिखाई दिया। इसके अलावा गिर्दा साथियों के साथ इतने मिलकर रहते थे, कि आज भी उनके सहयोगी रहे उनहै याद करना नही भूलते है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंण्ड मे गिर्दा की अहमियत महज एक कवि तक नही है।वह सही मायने में एक दूरदर्शी आन्दोलनकारी थे, उनकी मौत ने उत्तराखंड का सच्चा रहनुमा खो दिया है।


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